भारत में अंग्रेजों की भू राजस्व व्यवस्था
(British Land revenue system in India
-स्थाई भू राजस्व व्यवस्था (इस्तमरारी बंदोबस्त) ( permanent land revenue system)
- रैयतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari system)
-महालवाड़ी व्यवस्था(Mahalwari system)
स्थाई भू राजस्व व्यवस्था (इस्तमरारी बंदोबस्त) ( permanent land revenue system) 1793
लॉर्ड कॉर्नवालिस ने भू राजस्व वसूली की स्थाई व्यवस्था लागू की। आरंभ में यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए लागू की गई थी किंतु 1793 से इसे स्थाई बंदोबस्त में परिवर्तित कर दिया गया।
ब्रिटिश भारत के 19% भाग पर यह व्यवस्था थी। बंगाल बिहार उड़ीसा उत्तर प्रदेश के वाराणसी और कर्नाटक के उत्तरी क्षेत्र में लागू थी।
इस व्यवस्था में जमींदारों को भूस्वामी के रूप में मान्यता दी गई। इसके अंतर्गत वे वसूली का कुछ प्रतिशत भाग अपने पास रखकर शेष राशि को कंपनी को जमा करा देते थे।
इस व्यवस्था के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया कि जमीदार की मृत्यु के उपरांत उसकी भूमि उसके उत्तराधिकारीओं में चल संपत्ति की भांति विभाजित होगी
कॉर्नवालिस ने 1794 ईस्वी में एक सूर्यास्त कानून बनाया इसके तहत यह घोषित किया गया की पूर्व निर्धारित तिथि के सूर्यास्त तक सरकार को लगान नहीं दिया गया तो जमीदारी नीलाम हो जाएगी
रैयतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari system) 1820
भू राजस्व प्रबंधन के विषय में ब्रिटिश भारत में लागू की गई स्थाई बंदोबस्त के बाद यह दूसरी व्यवस्था थी जिसके सूत्रधार थॉमस मुनरो और कैप्टन रीड थे।
यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के 51 परसेंट भाग मद्रास बंबई के कुछ हिस्से पूर्वी बंगाल असम कुर्ग पर लागू की गई।
इस व्यवस्था के अंतर्गत किसानों को भूमि का मालिकाना हक दिया गया जिसके द्वारा ये प्रत्यक्ष रूप से भू राजस्व अदा करने के लिए उत्तरदाई थे।.
इस पद्धति में किसान को 33 से 35 परसेंट के बीच कंपनी को लगान अदा करना होता था। 1836 में गोल्ड स्मिथ द्वारा इस व्यवस्था में सुधार किया गया।
महालवाड़ी व्यवस्था(Mahalwari system)(1822)
होल्ट मैकेंजी
स्थाई बंदोबस्त और रेैयतवाडी व्यवस्था के बाद ब्रिटिश भारत में लागू की जाने वाली यह अगली भू राजस्व व्यवस्था थी। जो संपूर्ण भारत के 30 प्रतिशतभाग दक्कन के जिले मध्य प्रांत पंजाब संयुक्त प्रांत आगरा अवध (उत्तर प्रदेश) में लागू थी।
इस व्यवस्था के अंतर्गत भू राजस्व का निर्धारण समूचे ग्राम के उत्पादन के आधार पर किया जाता था तथा महाल के समस्त कृषक भू स्वामियों के भू राजस्व का निर्धारण संयुक्त रूप से किया जाता था। इसमें गांव के लोग अपने मुखिया या प्रतिनिधियों के द्वारा एक निर्धारित समय सीमा के अंदर लगान अदायगी की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते थे
इस पद्धति के अंतर्गत लगान का निर्धारण अनुमान पर आधारित था और इसकी विसंगतियों का फायदा उठाकर कंपनी के अधिकारी अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग गए तथा कंपनी को लगान वसूली पर लगान से अधिक खर्च करना पड़ा। परिणाम स्वरुप यह व्यवस्था बुरी तरह विफल रही।
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